Monday 14 October 2013

भविष्य का नवगीत - शचीन्द्र भटनागर

सृजन-प्रतिभा किसी भाषा की गुलाम नहीं होती है; वह जिस माध्यम को अपना ले, अपनी छाप उसमें छोड़ती ही है। अवनीश सिंह चैहान आधा दर्जन से अधिक अंग्रेजी पुस्तकों के लेखक-सहलेखक रहे हैं। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में कविताएँ लिखी हैं; अंग्रेजी नाटक तथा कविताओं का हिंदी अनुवाद भी किया है। इसके साथ उल्लेखनीय यह भी है कि उनके गीत-नवगीत हिंदी की दर्जनों पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उनकी प्रथम मौलिक कृति ‘टुकड़ा कागज़ का’ प्रकाशित हो रही है। ‘अन्तरराष्ट्रीय कविता कोश सम्मान’ एवं मिशीगन- अमेरिका का ‘बुक आफ द यीअर अवार्ड’ का प्राप्तकर्ता एवं भारत से प्रकाशित ‘स्पीचेज् आॅपफ स्वामी विवेकानन्द एण्ड सुभाषचन्द्र बोस: ए कम्परेटिव स्टडी’ तथा जर्मनी से प्रकाशित ‘राइटिंग स्किल्स’ के चर्चित लेखक तथा प्रतिष्ठित हिंदी गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता पर आधरित विशेषांक का संपादक अब ‘टुकड़ा कागज़ का’ के माध्यम से हिंदी गीतिकवियों एवं काव्यप्रेमियों के आशीर्वाद, स्नेह, सम्मान का पात्र भी बन गया है।

‘टुकड़ा कागज़ का’ अवनीश के 44 नवगीतों का संग्रह है। विपरीतताओं-विसंगतियों को सहन करके उनसे निरंतर जूझते हुए रास्ता बनाने वाले कवि अवनीश का जीवन-सूत्र है- ‘मेरे मनुआं जीवन है तो / जीवन भर पड़ता है तपना।’ यही भोगा हुआ यथार्थ विविध् रूपों में उनके नवगीतों में प्रत्यक्ष हुआ है। ये नवगीत कभी ‘पेट की चोटों को’ व्यक्त  करते हैं तो कभी ‘भीतर की टीसों को’। कभी ‘फसादों-बहसों’ में उलझे शब्दों के निकास बनते हैं तो कभी ‘सिद्धजनों पर’ हँसते हैं। गाँव में शहरी सभ्यता के संक्रमण का भी उनमें चित्रण है; बाज़ारवाद के फलस्वरूप जीवन-शैली पर हावी होते विज्ञापनों का सम्मोहन है; पश्चिमी सभ्यता की दलदल में धँसे किशोर-युवामन की विवशता हैं; धर्म, शिक्षा, राजनीति एवं न्याय तक के क्षेत्र में फैला भ्रष्टाचार इनमें बार-बार मुखरित हुआ है। सामाजिक सरोकार के इन नवगीतों में प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए अवनीश अनेक शैलियों का प्रयोग करते हैं। कहीं दो विपरीत स्थितियों के ‘कंट्रास्ट’ के माध्यम से वह अपनी बात को पाठक के मन की गहराई तक उतारते हैं तो कहीं प्रश्न प्रस्तुत करके पाठक को चिंतन के लिए विवश करते से प्रतीत होते हैं। कई बार उनकी कहन अन्योक्ति जैसी हो जाती है और तब वह चिड़िया को संबोधित करके कटु यथार्थ को बेधड़क प्रस्तुत कर देते हैं। प्रतीक उनके नवगीतों में अस्त्र बनकर उभरे हैं; अर्थलोलुप नेता, अधिकारियों के लिए ‘मारीच’, आर्थिक शोषकों के लिए ‘घड़ियाल’, आधुनिकता से सनी  जिंदगी के लिए ‘अजायबघर’ और प्यार, संस्कार, अपनापन लील जाने वाली शहरी सभ्यता के लिए ‘अजगर’ जैसे सटीक प्रतीकों के प्रयोग से भी अवनीश स्थिति को प्रभावी सघनता प्रदान करने में सफल होते हैं।

लोकसंपृक्ति, लोकसंवेदना, यथार्थ की अभिव्यक्ति तथा परंपरा के जीवंत तत्त्वों की पुनर्प्रतिष्ठा आज नवगीत की कुछ स्थापित विशेषताएँ हैं। आम आदमी की जिंदगी में आने वाली हर रुकावट उसका विषय है। आम आदमी की बोली उसकी भाषा है। अवनीश आम आदमी की जमात में से निकले हैं। अतः उनके नवगीतों में यह विशेषताएँ सहज रूप में समाहित हैं। न तो वहाँ गाँव के प्रति ‘नास्टेल्जिया’ है, न ही अंचलिकता के प्रति विशेष आग्रह-भाव है। उनमें विपन्नता की वेदना है, टूटते परिवारों की पीड़ा है, माँ-पिता की कृतज्ञ स्मृतियाँ हैं और है लोक-संस्कृति की गंध् से महकता बिलकुल अपना-सा लगता सहज वातावरण। अवनीश के नवगीतों के पात्र उनकी लोक-संपृक्तता में बहुत सहायक हैं। वहाँ रामभरोसे, कमेसुर, धुनिया, जखई बाबा और दाऊ हैं तो छुटकी बिटिया, छबिया, सुलेखा और मुनिया भी हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त वस्तुएँ, स्थान और बोले गए संज्ञा-शब्द, क्रियाएँ एवं मुहावरे सब मिलकर एक ऐसे वातावरण की सृष्टि करते हैं जो लोक-संवेदना को गहनतर करने में सहायक होती है। वहाँ शिशु की किलकन है, बछडे़ की रंभन है, गुड़-धानी की महक है, ढोल बजाता फगुआ है, कजरी की धुन है, सुहागिन का टोना है, कोटर में  दुबके परिंदे हैं, दो बित्ते की पगडंडी है, दुधरू गैया है, चिड़िया-चिरौटे हैं।

‘टुकड़ा कागज़ का’ के नवगीतों की एक और विशेषता है। अवनीश में किसी मोड़ पर हताशा नहीं जनमती है। उनकी विधेयात्मक दृष्टि उन्हें आध्यात्मिक बना देती है। अपने चारों तरफ़ उन्हें जीवंतता पसरी दिखाई देती है और वह कह उठते हैं- ‘चैतरफ़ा है / जीवन ही जीवन / शिशु किलकन है / बछड़े की रंभन’ और तब वह पूरी आश्वस्ति के साथ गीत के उज्ज्वल भविष्य की घोषणा करने लगते हैं- ‘अर्थ अभी घर का जीवित है / माँ, बापू, भाई-बहनों से / चिड़िया ने भी नीड़ बसाया / बड़े जत़न से, कुछ तिनकों से / मुनिया की पायल / बाजे छन-छन / कविता मरे असंभव है।’ निश्चित रूप से यहाँ कविता से कवि का आशय गीति-कविता से है। विधेयात्मकता के अतिरिक्त समन्वय की प्रवृत्ति तथा लोकमंगल की भावना भी भारतीय आध्यात्म के महत्वपूर्ण घटक हैं। अवनीश की इस आकांक्षा में ‘नाव चले तो / मुझ पर ऐसी / दोनों तीर मिलाए’ उनकी समन्वयवादी दृष्टि स्पष्ट झलकती है और ये दो किनारे हैं नवगीत और जनगीत, जिन्हें अवनीश अपने काव्य-कौशल से समन्वित करने की कामना करते प्रतीत होते हैं। ‘टुकड़ा कागज़ का’ के कुछ गीतांश यदि जनगीत के विवाद- समर्थकों के समझ उद्धृत कर दिए जाएँ तो मुझे विश्वास है, उन्हें संतुष्टि ही प्रदान करेंगे। जब वह कामना करते हैं कि- ‘जहाँ-जहाँ पर रेत अड़ी है / मेरी धर बहाए / ऊसर-बंजर तक जा-जाकर / चरण पखार गहूँ मैं।’ तब उनकी लोक कल्याणकारी भावना व्यक्त होकर अवनीश की नवगीत-दृष्टि को अध्यात्म से आवेष्टित करती प्रतीत होती है।

अंततः ‘टुकड़ा कागज़ का’ के नवगीत अवनीश चैहान की असीम संभावनाओं को उजागर करने के साथ भावी नवगीत के उस स्वरूप की ओर भी संकेत करते हैं जब यथार्थ अध्यात्म के छोरों को स्पर्श करता हुआ प्रस्तुत होगा। ‘स्व’ का विस्तार किए बिना आदमी आत्मकेंन्द्रित होकर समाज के किसी काम का नहीं रहेगा और स्व का विस्तार ही अध्यात्म है।


शचीन्द्र भटनागर

द्वारा श्री अमित भटनागर 
कार्यालय
जिला विद्यालय निरीक्षक
मुरादाबाद- 244001

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नवगीत संग्रह ''टुकड़ा कागज का" को अभिव्यक्ति विश्वम का नवांकुर पुरस्कार 15 नवम्बर 2014 को लखनऊ, उ प्र में प्रदान किया जायेगा। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष उस रचनाकार के पहले नवगीत-संग्रह की पांडुलिपि को दिया जा रहा है जिसने अनुभूति और नवगीत की पाठशाला से जुड़कर नवगीत के अंतरराष्ट्रीय विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। सुधी पाठकों/विद्वानों का हृदय से आभार।