अन्तर में जो बन्ना - अवनीश सिंह चौहान
एक प्रवासी
भँवरा है-
रंग-गंध का गाँव है
फूलों को वह
भरमाता है
मीठे-मीठे
गीत सुनाकर
और हृदय में
बस जाता है
मादक-मधु
मकरंद चुराकर
निष्ठुर,
सुधि की धूप बन गया
विरह गीत की छाँव है
बीत रही
जो फूलों पर, वह
देख-देख
कलियाँ चैकन्ना
सहज नहीं है
उसका मिलना
बैठा,
अन्तर में जो बन्ना
पता चला
वह बहुत गहन है
उम्र कागज़ी नाव है
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