Sunday, 13 October 2013

'टुकड़ा कागज़ का' यानी हिंदी नवगीत की भविष्योन्मुखी भंगिमा- कुमार रवीन्द्र

आज के हिन्दी नवगीत की मुख्य भंगिमा फ़िलवक्त से वार्तालाप करने की, वर्तमान परिवेश से प्रश्न करने की है। समकालीनता उसकी प्रमुख पहचान है। उसके यक्षप्रश्न मौज़ूदा यथास्थिति के विरोध में खड़े उसको नकारने की मुद्रा में दीखते हैं। वे प्रश्न किसी नकारात्मक सोच के परिचायक न होकर उस सकारात्मकता से उपजते हैं, जो भारत की शाश्वत ऋषि-परम्परा से हमें जोड़ती है। वस्तुतः परम्परा का विकास वर्तमानता के संस्कार और उसके उत्तरोत्तर विकास से ही होती है। पिछली सदी के प्रख्यात कवि-चिंतक टी. एस. एलियट ने अपने 'ट्रेडिशन एंड इंडिविजुअल टैलेंट' शीर्षक निबन्ध में इसी तथ्य को व्याख्यायित किया है। आज का नवगीत इसी अर्थ में समकालीन भी है और सनातन आशावादिता से जुड़ाव का वाचक भी है।

मैं रू-ब-रू हूँ युवा गीतकवि अवनीश सिंह चौहान के प्रवेश कविता संग्रह 'टुकड़ा कागज़ का' की रचनाओं से, जो इस बात की तसदीक़ करती हैं।

संग्रह की एक कविता है 'असंभव', जिसमें कवि ने कविता और जीवन के घनिष्ठ रिश्ते को बड़े ही मोहक एवं सजीव बिम्बों में रेखायित किया है। देखें उसकी ये पंक्तियाँ -

चौतरफा है
जीवन ही जीवन 
कविता मरे असंभव है

अर्थ अभी 
घर का जीवित है 
माँ, बापू, भाई-बहनों से
चिड़िया ने भी 
नीड़ बसाया 
बड़े जतन से, कुछ तिनकों से

मुनिया की पायल 
बाजे छन-छन 
कविता मरे असंभव है
...
शिशु किलकन है 
बछड़े की रंभन 
कविता मरे असंभव है

घर के सगे सम्बन्धों के, तिनके-तिनके जोड़ जतन से घरौंदे बनाने के, शिशु-किलकन, मुनिया की पायल की छ्नछ्न और बछड़े की रंभन के ये जो जीवंत संदर्भ हैं, यही तो कविता के प्राण-तत्त्व हैं। चौतरफा जीवन का यह महोत्सव ही तो कविता मनाती है। और हाँ, कविता का मर्म है उसके समय के अन्तराल को समेटने और वर्तमान एवं अतीत को संयोजित कर उनसे जीवन को व्याख्यायित करने में, क्योंकि 

हम भूले 
जिन ख़ास क्षणों को 
कविता याद उन्हें रखती है

और … इसमें भी कि

पिछड़ गये हम 
शायद हमसे 
कविता कुछ आगे चलती है

वस्तुतः कविता की यात्रा अतीत के सात्त्विक संस्कारों से लेकर भविष्य की आस्था एवं परिकल्पना तक है। वह अवचेतन की उन पुरा-स्मृतियों से पोषित होती है, जो वर्तमान को आकृति देती हैं, उसे एक भविष्यपरक दृष्टि देती हैं।

इसी तरह की संग्रह की एक केंद्र-कविता है 'चिड़िया और चिरौटे' जिसमें कवि ने, जो आमजन के विनष्ट होते घरौंदे हैं, उनका बड़ा ही सटीक प्रतीक-कथन किया है -

घर
मकान में क्या बदला है
गौरैया रूठ गई

भाँप रहे 
बदले मौसम को 
चिड़िया और चिरौटे
झाँक रहे 
रोशनदानों से 
कभी गेट पर बैठे

सोच रहे 
अपने सपनों की 
पैंजनिया टूट गई

घर का मकान में तब्दील हो जाना - हाँ, यही तो आज के पदार्थवादी समय की प्रमुख समस्या है। इसी से जुड़ी है आर्थिक विषमता की त्रासक समस्या, जिसमें सभी एक अंधी दौड़ में शामिल हो समूची मानुषी अस्मिता को ही आहत-विनष्ट करने पर तुले हैं।

सब चलते चौड़े रस्ते पर 
पगडंडी पर कौन चलेगा?

पगडंडी जो 
मिल न सकी है 
राजपथों से, शहरों से
जिसका भारत 
केवल-केवल 
खेतों से औ' गाँवों से

आज के मारीच की स्वर्णिम मृग-मरीचिका को कोई वनवासी राम ही समझ-जान सकता है और वही अंततः उसका वध करने में सक्षम हो सकेगा, किन्तु जब सारे जीवन-मूल्य ही रावण की स्वर्ण-लंका से परिचालित होने लगें तब क्या किया जाए - 

जहाँ केंद्र से 
चलकर पैसा 
लुट जाता है रस्ते में
और परिधि
भगवान भरोसे 
रहती ठण्डे बस्ते में

मारीचों का वध करने को
फिर वनवासी कौन बनेगा?

आज के समय में मानुषी इच्छाएँ एवं संस्कार टीवी के कार्यक्रमों एवं विज्ञापन-संदेशों से संवर्द्धित तथा परिचालित होते हैं| बचपन से ही आज की पीढ़ी उससे ही जीवन को व्याख्यायित एवं परिभाषित कर रही है| इस जीवन नियति की व्याख्या बड़े ही सटीक रूप में इन पंक्तियों में हुई है, देखें तो ज़रा -

बच्चा सीख रहा
टीवी से 
अच्छे होते हैं ये दाग

टॉफी, बिस्कुट, पर्क, बबलगम 
खिल-खिलाकर मारी भूख
माँ भी समझ नहीं पाती है 
कहाँ हो रही भारी चूक

माँ का नेह
मनाए हठ को 
लिए कौर में रोटी-साग

बच्चा पहुँच गया कॉलेज में 
नेता बना, जमाई धाक
ट्यूशन, बाइक, मोबाइल के- 
नाम पढ़ाई पूरी ख़ाक

झूठ बोलकर 
ऐंठ डैड से 
खुलता बोतल का है काग

यह जो वासनाओं का अपसांस्कृतिक एवं बाह्य आरोपित पोषण है, वही तो इस विषम कालखंड की सबसे बड़ी त्रासदी है और हम मन्त्रमुग्ध इसे ही अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि एवं प्रगति की कसौटी मान रहे हैं| इस विज्ञापन-संस्कृति के अन्धानुकरण की चपेट में सबसे ज्यादा मध्यम वर्ग आया है, जो कभी शाश्वत जीवन-मूल्यों को दिशा देने वाला और सामाजिक स्थितियों का परिष्कृत करने की महती भूमिका निभाने वाला वर्ग माना जाता था|

''सब चलता' कह रहा ज़माना' वाले इस अनर्गल युग में 'कबिरा-सा / बुनकर बनने में / लगते कितने साल' जैसा कवि का सार्थक प्रश्न और उसकी 'मंगल पाखी / वापस आओ / सूना नीड़ बुलाये' की अभीप्सा हमारी सात्त्विकता के पोषण के लिए कितनी ज़रूरी है, यह इस संग्रह की रचनाओं को पढ़कर बार-बार महसूस होता है। इसी आस्थावादी स्वर से जुड़ा है यह सात्त्विक संकल्प भी, जिसे कवि ने एक नदी के रूपक से व्याख्यायित किया है -

मेरी कोशिश 
सूखी नदिया में-
बन नीर बहूँ मैं

बह पाऊँ उन राहों पर भी
जिनमें कंटक बिखरे
तोड़ सकूँ चट्टानों को भी 
गड़ी हुईं जो गहरे

रत्न, जवाहिर
मुझसे जन्में 
इतना गहन बनूँ मैं

थके हुए को - हर प्यासे को 
चलकर जीवन-जल दूँ
दबे और कुचले पौधों को 
हरा-भरा नव दल दूँ

हर विपदा में, हर चिंता में 
सबके साथ दहूँ मैं

संग्रह की तमाम कविताएँ हमें अपने कथ्य एवं सटीक-सधी कहन-भंगिमा से आज के सन्दर्भों से बड़ी शिद्दत से परिचित कराती हैं। इस दृष्टि से युवा रचनाकारों में अवनीश सिंह चौहान का कृतित्त्व, निश्चित ही, गीतकविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। उनकी कहन को नित नूतन आयाम मिले, जिससे गीत कविता के संस्कार की प्रक्रिया अनवरत चलती रहे, यही उनके कवि के प्रति मेरी कामना है।

 साहित्य समीर दस्तक (मासिक पत्रिका), 242 सर्वधर्म कालोनी, सी- सेक्टर, कोलार रोड, भोपाल- 462042, अप्रैल 2013, पृ 28-29 में गीत संग्रह "टुकड़ा कागज़ का" की यह समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जिसे यहाँ साभार पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।

समीक्षक: 

कुमार रवीन्द्र

क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट -२ 
हिसार -१२५००५

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नवगीत संग्रह ''टुकड़ा कागज का" को अभिव्यक्ति विश्वम का नवांकुर पुरस्कार 15 नवम्बर 2014 को लखनऊ, उ प्र में प्रदान किया जायेगा। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष उस रचनाकार के पहले नवगीत-संग्रह की पांडुलिपि को दिया जा रहा है जिसने अनुभूति और नवगीत की पाठशाला से जुड़कर नवगीत के अंतरराष्ट्रीय विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। सुधी पाठकों/विद्वानों का हृदय से आभार।