आजादी के पश्चात् भारत में विविध क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन हुआ है। संस्कृति और साहित्य का क्षेत्र भी इस दृष्टि से अछूता नहीं है। आजादी के बाद साहित्य की विविध विधाओं में भी शिल्प की दृष्टि से प्रचुर परिवर्तन आया है। कविता के क्षेत्र में ‘नयी कविता’ निबन्ध के क्षेत्र में ‘ललित निबन्ध’ तो कहानी के क्षेत्र में ‘नयी कहानी’ के रूप में शिल्पगत परिवर्तन आया है। इसी प्रकार हिन्दी की बहुचर्चित काव्य-विधा गीत के शिल्प में जो परिवर्तन आया है, उसे गीतकारों ने ‘नवगीत’ की संज्ञा से विभूषित किया है। नवगीत-सृजन के साथ-साथ नवगीत के कुछ पुरोधाओं ने नवगीत की संस्थापना के लिए भी आलोचनात्मक आलेख लिखे हैं और नवगीत की शिल्पगत महत्ता एवं विशिष्टता पर प्रकाश भी डाला है। वैसे तो सभी नवगीतकार गीत का शैल्पिक रूप से विकसित होना ‘नवगीत’ के रूप में मानते हैं अर्थात् नवगीत को गीत की अत्यन्त विकसित विधा मानने के दावे करते रहे हैं। ऐसे नवगीतकारों ने नवगीत सृजन पर कम अपितु उसके संस्थापन पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया है, फलतः नवगीत की इस जमात में परस्पर विरोधी स्वर भी गूँजने लगे हैं।
यही नहीं, कुछ लोग तो अपने को महान नवगीतकार भी मानने लगे हैं। परिणाम यह हुआ है कि नवगीत के क्षेत्र में दावों प्रतिदावों के चलते खेमेबाजी भी शुरू हो गयी है। जब सृजक स्वंय को महान और दूसरे को हेय मानने लगता है तो खेमेबाजी हो जानी सुनिश्चित है। इनमें एक खेमा (स्वñ) डॉñ शम्भुनाथ सिंह का अनुगमन करता है तो दूसरा खेमा श्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह को अपना आदर्श मानता है। मुझे बड़ी पीड़ा होती है कि आज नवगीत के समर्थक क्षेत्र और जातियों में बंट गये हैं और अपने मुख्य दायित्व से विमुख हो गये हैं। प्रचुर लेख लिखे रहे हैं, आलोचनात्मक अंक प्रकाशित हो रहे हैं, ग्रंथ आ रहे हैं सम्पादन भी हो रहे हैं इन्हें देखें तो आपको वस्तुस्थिति का आभास हो जायेगा। मानो हर नवगीतकार अपने को स्थापित करने में लगा है।
मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि इन सब विद्रूपताओं के बीच कुछ सृजक ऐसे भी हैं जो नवगीत की खेमेबाजी से प्रायः दूर हैं और अपना उत्कृष्ट सृजन देने में रत हैं ऐसे नवगीतकारों में मुझे युवा पीढ़ी के हस्ताक्षर अवनीश सिंह चैहान भी दिखायी देते हैं। श्री अवनीश सिंह चैहान युवा नवगीतकार हैं, उनकी अभी एक ही नवगीत कृति ‘टुकड़ा कागज का’ प्रकाश में आयी है जिसे देखकर नवगीत के सुन्दर भविष्य की कल्पना की जा सकती है। सबसे बड़ी बात जो मुझे अत्यन्त प्रभावित करती है, वह उनका खेमेबाजी से पृथक होना है, और यही वह बिन्दु है जो उन्हें एक सार्थक एवं विशुद्ध नवगीतकार कहने को बाध्य करता है। वैसे भी साहित्यकार को खेमेबाजी अथवा राजनीति से क्या लेना देना है। वह जाति, धर्म और क्षेत्र से भी ऊँचा होता है। ऐसा साहित्यकार किसी बन्धन को नहीं मानता है। निःसन्देह ‘टुकड़ा कागज का’ की रचनाओं से यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। ‘टुकड़ा कागज का’ की ये पंक्तियाँ देखें-
कभी फसादों-बहसों में
है शब्द-शब्द उलझा
दरके-दरके शीशे में
चेहरा बाँचा-समझा
सिद्धजनों पर
हँसता जाए
टुकड़ा कागज का (पृष्ठ- 25)
और ये पंक्तियाँ भी देखे-
घड़ियालों का
अपना घर है
उनको भी तो जीना
पानी तो है
सबका जीवन
जल की मीन-नगीना
पंख सभी के छुएँ शिखर को
प्रभु दे, वह पर परवाज़ (पृष्ठ- 46)
अस्तु उपर्युक्त नवगीतों की पंक्तियाँ कहीं पर भी सटीक बैठ सकती हैं, क्योंकि आज का परिवेश ही इतनी विषमता ग्रस्त और क्रूर हो गया है। ऐसे विषम वातावरण में भी टुकड़ा कागज का रचनाकार निरन्तर सृजन करता हुआ, दृढ़ता के साथ एक-एक कदम फूँक-फूँक कर चल रहा है। निस्सन्देह, उसकी इसी साधना विश्वास और दृढ़ता को एक दिन नवगीत का उच्च अदृश्य लक्ष्य प्राप्त होगा। वह स्पष्ट कहता भी है उसकी सर्वोत्तम उद्योग रचना की ये पंक्तियाँ देखें :-
गलाकाट इस
कम्पटीशन में
मुश्किल सर्वप्रथम आ जाना
शिखर पा गए किसी तरह तो
मुश्किल है उस पर टिक पाना
सफल हुए हैं
इस युग में जो
ऊँचा उनका योग (पृष्ठ- 47)
वस्तुतः स्वातंत्र्योत्तर भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि परिवेश में जो गिरावट आयी है, उसे ‘टुकड़ा कागज का’ उसके यथार्थ रूप में अंकित कर रहा है। आर्थिक विषमता ने व्यक्ति, परिवार, समाज और मानवीय मूल्यों तक को चूर-चूर का डाला है। नवगीतकार अवनीश सिंह चैहान की दृष्टि से यह कुछ छिपा नहीं है क्योंकि वे गाँव की धरती से जुड़े और नगर एवं महानगर के जीवन को भी क्रमशः देख और भोग रहे हैं जहाँ चारों ओर अत्याचार, अन्याय, भ्रष्टाचार, शोषण, कदाचार, दुराचार, जातिवाद, भाई-भतीजावाद, क्षेत्रवाद, रिश्वत, झूठ, मक्कारी, अपहरण, लूट, डकैती, हत्या आदि के राक्षस विचरते हुए दिखायी देते हैं, तो उनका संवेदनशील मन चीत्कार कर उठता है। आदमी मर रहा है, राक्षस मुस्करा रहा है और कुछ लोग हैं जिन्होंने इन राक्षसों से साँठ-गाँठ कर ली है। फलतः वे मौज-मस्ती मना रहे हैं। ईमानदार, श्रम का पूजक और मानवीय मूल्यों में विश्वास रखने वाला निरन्तर अपमानित ही नहीं हो रहा है, अपितु उसका दिन-प्रतिदिन का जीवन भी दुष्कर हो चला है। ‘अपना गाँव-समाज’, ‘चुप बैठा धुनिया’, ‘श्रम की मण्डी’, ‘किसको कौन उबारे’, ‘बाजार समंदर’, ‘चिंताओं का बोझ ज़िन्दगी’ ‘पंच गाँव का’, ‘रेल जिन्दगी’ ‘एक तिनका हम’ आदि नवगीत रचनाओं में स्वातंत्र्योत्तर परिवर्तन को देखा जा सकता है।
ऐसे संक्रमणशील परिवेश में अनुभव के मोती नामक नवगीत रचना के द्वारा नवगीतकार युवा पीढ़ी को सन्देश भी देना नही भूलता है-
बनकर ध्वज हम
इस धरती के
अंबर में फहराएँ
मेघा बनकर
जीवन जल दें
सागर-सा लहराएँ
× × × ×
पथ के कंटक बन को
आओ
मिलकर आज जराएँ
× × × ×
चुन-चुनकर
अनुभव के मोती
जोड़ें सभी शिराएँ
वस्तुतः इस प्रकार की नवगीत रचनाएँ टूटे और सर्वहारा वर्ग के थकित मजदूर, किसान, युवा, आदमी, सबको नया जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। निराशा में भी आशा की किरण बनकर उभरती हैं।
सारतः ‘टुकड़ा कागज का’ नवगीतकार अवनीश सिंह चैहान की कुल 44 नवगीत रचनाएँ हैं जो नवगीत के क्षेत्र में उनकी भाव-भाषा और शिल्प के वैविध्य की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इन रचनाओं में रचनाकार के अनुभव, चिन्तन और कल्पना ने यथार्थ जीवन की अनुभूतियों को चार चाँद लगा दिए हैं। प्रभावोत्पादकता के साथ अभिव्यक्त कर दिया है क्लिष्टता अथवा दूरूहता इस नवगीत कृति में कहीं नहीं दिखाई दी है। सारी नवगीत रचनाएँ सहज सम्प्रेषणीय हैं। इन नवगीतों में वाक्लय, शब्द लय और अर्थलयों ने नवगीतों के सृजक अवनीश सिंह चैहान को नवगीत का प्रखर हस्ताक्षर बना दिया है। वस्तुतः आम बोलचाल की हिन्दी में प्रस्तुत अपनी अनुभूतियों की सार्थक अभिव्यक्ति के कारण ‘टुकड़ा कागज का’ रचनाकार एक उत्कृष्ट नवगीत कृति देने में सफल हुआ है। फलतः भावपक्ष और कला पक्ष के अनूठे संगम के कारण यह नवगीत की एक उल्लेखनीय कृति बन गयी है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि नवगीत के प्रमुख हस्ताक्षरों में संख्यात्मक कृतियों के कारण नहीं अपितु अपनी इस सार्थक एवं रचनात्मक नवगीतों की प्रभावी प्रस्तुति के कारण श्री अवनीश सिंह चैहान भारतीय नवगीतकारों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं, सफल होंगे। ‘टुकड़ा कागज का’ निस्सन्देह, एक संग्रहणीय और उत्कृष्ट नवगीत कृति के रूप में अपनी पहचान अंकित करेगी।
समीक्षक:
पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष
गुलाब सिंह हिन्दू (पी जी) कॉलेज
चाँदपुर (बिजनौर) उ प्र
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