शिल्पकार जब अपने शिल्प को तराशता है तो वह एक ही समय में दो सृजन करता है, एक अन्तस की गहराइयों में सृजित होता है तो दूसरा स्थूल-जगत में मूर्तिमान हो उठता है। स्थूल-जगत में आकारबद्ध होने वाली प्रत्येक वस्तु नश्वर है। किन्तु हृदय के सूक्ष्मतम में होने वाला सृजन अविनाशी है। क्योंकि सृष्टि का चिरतंन सत्य ‘स्पन्दन’ है। पायल की छनछन हो, शिशु की किलकन हो, बछड़े की रंभन हो! जब तक स्पन्दन है, कविता का मरना निष्चित ही असंभव है। डॉ. अवनीश सिहं चौहान का नवगीत संग्रह ‘टुकड़ा कागज का’ ऐसे ही चिरंतन सत्य से साक्षात्कार करवाती रचनाओं का संग्रह है।
संग्रह में अंतर-जगत की गहराइयों को छूता मन है तो, बाह्य-जगत की विषमताओं से परिचय करवाती मनःस्थिति है। टुकड़ा कागज का, एक तिनका हम, केशव मेरे, असंभव है, नदियॉं की लहरे, आदि गीत गहनतम अनुभूतियॉं हैं, तो अपना गॉव समाज, चिड़िया और चिरोटे, गली की धूल, रिसते हुए रिश्तों की कहानी कहते नवगीत हैं। वक्त की ऑंधी, पंच गॉंव का, सर्वोत्तम उद्योग, चुप बैठा धुनिया, श्रम की मंडी जैसे कई गीत समय की नब्ज में कंपकपाती ध्वनि के संग रिदम बिठाते नवगीत है। समाज की रगों में उठती गिरती धड़कनों को न केवल अवनीश गिन सकते हैं वरन् पाठक वर्ग भी उसके नाद को बखूबी आत्मसात करता है और जब पाठक और कवि की आत्मा द्वैत से अद्वैत हो जाती है समझईये कवि की साधना सफल हो गई।
जहॉं तक गीतों के शिल्प का प्रश्न है नवगीत रचने में अवनीश जी सफल हुये हैं। आधुनिक समय में भाषा भी विदेशी संक्रमण से बच नहीं पाई है। यद्यपि संग्रह के गीतों में विषय की दरकार के अनुसार ही विदेशी शब्दों का उपयोग हुआ है फिर भी वह गीत की मधुरता कम करने का कारण तो बने ही हैं। जिन गीतों में ऑंचलिकता का अपनत्व समाया है उनमें रसात्मकता सहज ही शामिल हो गई है।
विविधवर्णी इस गीत संग्रह का मूल स्वर असत्य के प्रति सत्य आग्रह और विषम को सम करने का प्रयत्न है। अहं की अकड़ विनाश का कारण बनती है इस शाश्वत सत्य को अवनीश जी ने बड़े ही नवीन प्रतीक के माध्यम से कहा है.....‘अकड गई जो टहनी मन की उसको तनिक लचा दे’ विनयशील मन का विनय के महत्व को प्रतिपादित करता सुन्दर प्रयोग। ऐसे कई प्रयोग हैं जो सहज ही आकर्षित करने के साथ सहज ही अंतस को छू जाते हैं। यथा.......सोच रहे अपने सपनों की पैंजनिया टूट गई........या तोड़ दिया है किसने आपसदारी का वह साज..’ ‘गुमसुम गुमसुम-सी तू /भीतर भीतर तिरती है.’...स्त्री की वेदना, तरलता कुछ ही शब्दो में व्यक्त हो गई। रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून को स्मरण कराती पंक्तियॉं ‘जब जब मरा ऑंख का पानी / आई हैं तब तब विपदाएँ' सम्मान और शर्म को बचाये रखने की सीख देती है।
संग्रह का प्रतिनिधि गीत 'टुकड़ा कागज़ का’ असीमित संभावनाओ का गीत है। गीत की अंतिम पंक्ति ‘चलता है हल गुड़ता जाए/ टुकड़ा कागज का’ में अवनीश जी प्रसि़द्ध कवि उमाशकर जोशी जी की कविता ‘‘छोटा मेरा खेत’’ की तरह कागज के टुकड़े को चौकोर खेत की तरह प्रस्तुत कर भावों के बीज रोपकर शब्दों की खेती करते दिखाई देते हैं।
‘तकली में अब लगी रूई है, कात रही है, समय सुई है/ कबिरा सा बुनकर बनने में लगते कितने साल ?नवगीत संग्रह की सबसे उत्कृष्ट पंक्तियॉं हैं। छोटी वय में ही कवि का मन जिन्दगी को कबीर की तरह बुनना चाहता है, ऐसा दार्शनिक चिंतन कवि के व्यक्तित्व की गहराईयों को दर्शाता है। अवनीश के गीतों में संतों-सा दर्शन है, परिस्थितियों का चिंतन है, और सर्वहित में प्रयत्नरत मन है।
कथ्य की परिपूर्ण संप्रेषणीयता के बीच जब भाव का आशावादी जल हिलोरे लेता है तो वहॉं आत्मा की शुद्धि का सरोवर बन जाता है। निश्चित ही नवगीत के इस सरोवर में अवगाहन कर सुधि पाठक स्वयं को र्स्फूत अनुभूत करेगें। अवनीश जी को मननशील संग्रह के लिये बधाई और शुभकामनायें।
जहॉं तक गीतों के शिल्प का प्रश्न है नवगीत रचने में अवनीश जी सफल हुये हैं। आधुनिक समय में भाषा भी विदेशी संक्रमण से बच नहीं पाई है। यद्यपि संग्रह के गीतों में विषय की दरकार के अनुसार ही विदेशी शब्दों का उपयोग हुआ है फिर भी वह गीत की मधुरता कम करने का कारण तो बने ही हैं। जिन गीतों में ऑंचलिकता का अपनत्व समाया है उनमें रसात्मकता सहज ही शामिल हो गई है।
विविधवर्णी इस गीत संग्रह का मूल स्वर असत्य के प्रति सत्य आग्रह और विषम को सम करने का प्रयत्न है। अहं की अकड़ विनाश का कारण बनती है इस शाश्वत सत्य को अवनीश जी ने बड़े ही नवीन प्रतीक के माध्यम से कहा है.....‘अकड गई जो टहनी मन की उसको तनिक लचा दे’ विनयशील मन का विनय के महत्व को प्रतिपादित करता सुन्दर प्रयोग। ऐसे कई प्रयोग हैं जो सहज ही आकर्षित करने के साथ सहज ही अंतस को छू जाते हैं। यथा.......सोच रहे अपने सपनों की पैंजनिया टूट गई........या तोड़ दिया है किसने आपसदारी का वह साज..’ ‘गुमसुम गुमसुम-सी तू /भीतर भीतर तिरती है.’...स्त्री की वेदना, तरलता कुछ ही शब्दो में व्यक्त हो गई। रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून को स्मरण कराती पंक्तियॉं ‘जब जब मरा ऑंख का पानी / आई हैं तब तब विपदाएँ' सम्मान और शर्म को बचाये रखने की सीख देती है।
संग्रह का प्रतिनिधि गीत 'टुकड़ा कागज़ का’ असीमित संभावनाओ का गीत है। गीत की अंतिम पंक्ति ‘चलता है हल गुड़ता जाए/ टुकड़ा कागज का’ में अवनीश जी प्रसि़द्ध कवि उमाशकर जोशी जी की कविता ‘‘छोटा मेरा खेत’’ की तरह कागज के टुकड़े को चौकोर खेत की तरह प्रस्तुत कर भावों के बीज रोपकर शब्दों की खेती करते दिखाई देते हैं।
‘तकली में अब लगी रूई है, कात रही है, समय सुई है/ कबिरा सा बुनकर बनने में लगते कितने साल ?नवगीत संग्रह की सबसे उत्कृष्ट पंक्तियॉं हैं। छोटी वय में ही कवि का मन जिन्दगी को कबीर की तरह बुनना चाहता है, ऐसा दार्शनिक चिंतन कवि के व्यक्तित्व की गहराईयों को दर्शाता है। अवनीश के गीतों में संतों-सा दर्शन है, परिस्थितियों का चिंतन है, और सर्वहित में प्रयत्नरत मन है।
कथ्य की परिपूर्ण संप्रेषणीयता के बीच जब भाव का आशावादी जल हिलोरे लेता है तो वहॉं आत्मा की शुद्धि का सरोवर बन जाता है। निश्चित ही नवगीत के इस सरोवर में अवगाहन कर सुधि पाठक स्वयं को र्स्फूत अनुभूत करेगें। अवनीश जी को मननशील संग्रह के लिये बधाई और शुभकामनायें।
- हिन्दी प्रचारिणी सभा (कैनेडा) की अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दी चेतना' के जुलाई-सितम्बर 2013 (पृ 58) अंक में गीत संग्रह "टुकड़ा कागज़ का" की यह समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जिसे यहाँ साभार पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।
समीक्षक:
सम्पर्क : ई-2 / 346, अरेरा कॉलोनी, भोपाल
दूरभाष: 0755-2421384, 9993707571
ईमेल:dr.sadhnabalwate@yahoo.in
वधाई ।
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