उठता-गिरता
उड़ता जाए
टुकड़ा कागज़ का
कभी पेट की चोटों को
आँखों में भर लाता
कभी अकेले में
भीतर की
टीसों को गाता
अंदर-अंदर
लुटता जाए
टुकड़ा कागज़ का
कभी फ़सादों-बहसों में
है शब्द-शब्द उलझा
दरके-दरके
शीशे में
चेहरा बाँचा-समझा
सिद्धजनों पर
हँसता जाए
टुकड़ा कागज़ का
कभी कोयले-सा धधका,
फिर राख बना, रोया
माटी में मिल गया
कि जैसे
माटी में सोया
चलता है हल
गुड़ता जाए
टुकड़ा कागज़ का
उड़ता जाए
टुकड़ा कागज़ का
कभी पेट की चोटों को
आँखों में भर लाता
कभी अकेले में
भीतर की
टीसों को गाता
अंदर-अंदर
लुटता जाए
टुकड़ा कागज़ का
कभी फ़सादों-बहसों में
है शब्द-शब्द उलझा
दरके-दरके
शीशे में
चेहरा बाँचा-समझा
सिद्धजनों पर
हँसता जाए
टुकड़ा कागज़ का
कभी कोयले-सा धधका,
फिर राख बना, रोया
माटी में मिल गया
कि जैसे
माटी में सोया
चलता है हल
गुड़ता जाए
टुकड़ा कागज़ का
andar andar lutta jaye tukda kagj ka ,achcha geet hai badhai
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबेहद सुंदर रचना।
ReplyDeleteशानदार और सार्थक रचना। बहुत बधाई
ReplyDeleteसिद्धजनों पर हॅसने और राख होकर माटी में मिल जाने वाला कागज का टुकड़ा कोई हैसियत न रखते हुए भी सम्राटों से बड़ा है। अवनीशजी आप कहॉ-कहॉ से मोती ढॅूढ़ कर लाते हैं? रचना बिल्कुल पाठक के मन को छू जाती है।
ReplyDeletejust awesome
ReplyDeleteबेहद सुंदर नवगीत!
ReplyDelete- अनुज पाण्डेय