Monday 14 October 2013

कविता मरे असंभव है - डॉ विमल


‘टुकड़ा कागज़ का’ गीत-संग्रह पलटते हुए एकाएक निम्नलिखित पंक्तियों पर दृष्टि ठिठक गई। पंक्तियाँ हैं- ‘चौतरफा है / जीवन ही जीवन / कविता मरे / असंभव है।’ इसी गीत में तमाम सारे उदाहरण भी हैं। घर है (मकान नहीं), माँ, बापू, भाई-बहिन हैं, तिनकों से निर्मित चिड़ियों का नीड़ भी है, गंगा में पानी की धरा है, खेतों में धनी-चूनर फैली हुई है, शिशुओं का किलकन है, बछरों की रंभन है- फिर कविता मरे तो क्यों? गीतकवि को इस विश्वास हेतु आलोचना-शिविर से हार्दिक बधाई। पहली बात तो यह कि गीत और कविता को एक मानकर कवि ने गीत को एक विस्तृत आधार-भूमि प्रदान की है और दूसरी बात यह कि रचना-परंपरा की पुरातन विरासत को पुनः अर्जित कर उसे सार्थक समकालीनता में पुर्नस्थापित कर दिया है। कहना न होगा कि पाँचवे दशक के बाद के सर्जन ने उसी प्रकार अपनी परंपरा से अपने को काटा जिस प्रकार भारतीय जनतंत्र की राजनीति ने अपने को स्वाधीनता-आंदोलन की विरासत से अलग किया। मिट्टी और जीवन से जोड़कर अपने सर्जन में कवि ने जो उर्जा भरी है, पूरा संग्रह उसका प्रमाण है।

कहीं सूनी पड़ी हुई परती की कोख को हरी करती हुई, तलवों से दबकर तलवों को गुदगुदाती हुई हरी घास है जो दुधारू गायों का ग्रास बनकर दूध्-दही माँ परस रही है; तो कहीं पर्वतों के कठोर वक्ष को तोड़ती हुई, वन-प्रान्तर की असम-विषम भू-भागों से गुजरती हुई, चट्टानों को तोड़ती-फोड़ती, टकराती-बलखाती प्रवाहित नदियाँ हैं। चिड़ियाँ हैं, चिरौटे हैं। उनका नैसर्गिक जीवन है, जीवन-संघर्ष है। गाँव हैं, ग्रामीण समाज है। पगडंडियाँ हैं, अठखेलियाँ हैं। फिर कविता मरे कैसे? असंभव है। सावधन! सभी उत्तमोत्तमों की मृत्यु की घोषणा करने वाले उत्तर आधुनिकतावादी कहीं सुन तो नहीं रहे हैं? क्या पता शेष जो ‘उत्तम’ बचे हैं, उनकी मृत्यु की घोषणा भी न कर दें। स्मरण रहे कि जब-जब जगत और जीवन के सौन्दर्य की आराधना हुई है, तब-तब श्रेष्ठ कलाएँ जन्मी हैं। जीवन-राग ने ही कला-सृष्टि में रंग और उर्जा भरी है। और, प्रकृति है जीवन का अक्षय सौन्दर्य-स्रोत। इस संग्रह की अपनी तमाम सृजनात्मक सीमाओं के बावजूद प्रकृति और जीवन का राग इसके गीतों की संजीवनी शक्ति है जो कवि और उसके सृजन की संभावनाओं को उजागर कर उपलब्धि अर्जित करती है। 


- डॉ विमल
भू॰पू॰ प्रोफेसर तथा अध्यक्ष, 
हिन्दी-विभाग
वर्धमान विश्वविद्यालय
वर्धमान, प॰ बं॰

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नवगीत संग्रह ''टुकड़ा कागज का" को अभिव्यक्ति विश्वम का नवांकुर पुरस्कार 15 नवम्बर 2014 को लखनऊ, उ प्र में प्रदान किया जायेगा। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष उस रचनाकार के पहले नवगीत-संग्रह की पांडुलिपि को दिया जा रहा है जिसने अनुभूति और नवगीत की पाठशाला से जुड़कर नवगीत के अंतरराष्ट्रीय विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। सुधी पाठकों/विद्वानों का हृदय से आभार।