Saturday 12 October 2013

नवगीत की अनुगूँज - गुलाब सिंह

इस काव्य संग्रह की रचनाओं के मुख्य दो छोर दिखाई पड़ते हैं, जिसका एक सिरा ‘टुकड़ा कागज़ का’ शीर्षक गीत तथा दूसरा ‘अपना गाँव-समाज’ है। दोनों के बीच राजमार्ग का सुहाना किन्तु असुरक्षित सफर, पगडंडियाँ बनाने और उन पर चलने अर्थात् नई राहों की खोज, अँजुरी में भरे शीतल मीठे जल की मानिन्द अँगुलियों की फाँक से रिसते जाते सामाजिक रिश्ते और आँखों की कोरों में बूँद बनकर थमी-थमी-सी पारिवारिक आत्मीयता, सम्मोहित करने वाली प्राकृतिक झाँकियाँ, यांत्रिक और मशीनी जीवन की आत्मकेन्द्रीयता, विज्ञान की उपयोगी और तल्ख उपलब्धियां- जैसे जगत और जीवन के विविध् परिदृश्य और नवगीत के रूप में उन सब की विन्यस्ति दिखाई पड़ती है। कल्पना, भाव, संवेदना, यथार्थ- सब कुछ संजोता है ‘टुकड़ा कागज़ का’- 

कभी पेट की चोटों को 
आँखों में भर लाता 
कभी अकेले में भीतर की 
टीसों को गाता 

अंदर-अंदर लुटता जाए 
टुकड़ा कागज़ का। 

कागज़ के टुकड़े पर फैली पीड़ा समाज के आईने में समाज का चेहरा दिखाने की कोशिश है, जो लोगों को संवेदित करने के लिए व्यक्त की जाती है। निर्मम और संवेदन संकीर्ण समाज को वह जिस हद तक जागृत या उद्वेलित कर पाती है, उसी सीमा तक कलमकार की सफलता आँकी जाती है। रचनाकार उसी समाज की इकाई होने के कारण स्वयं भोक्ता भी है और इसीलिए उसकी अभिव्यक्ति अनुभवजन्य होती है। अपनी अनुभूति को शब्द देकर वह पाठक या श्रोता को उस अनुभूति का सहभागी बनाता है। कोई पाठक जब तल्लीन होकर उस कृति का पाठ करता है तो रचनाकार के उन सृजन क्षणों को जैसे उसे वापस लौटाकर एक तृप्ति प्रदान करता है। यह गीत में अधिक संभव है। इसी कारण कागज़ के टुकड़े की इस पीड़ा को अवनीश ने कई कोणों से देखा, पढ़ा और व्यक्त किया है। यह उनकी पैनी अनुवीक्षण शक्ति के कारण हो पाया है। इस पीड़ा से मुक्ति पाना कितना कठिन है- ‘किससे अब/ क्या कहे सुलेखा / दुस्साहस क्रशरों का बढ़ता / चट्टानों से चूना झड़ता / मिटी हीर की / जीवन-रेखा।’ 

निजात पाने की संभावनाएँ मुखौटेधारी चेहरों, दुहरे चरित्र, और अनैतिक आचरण में खो गई हैं। सामाजिक उत्थान के थोथे नारों और व्यवस्था के छद्मों के कुहरे में प्रगति की राहें विलीन हो गई हैं- ‘बिना नाव के / माँझी देखे / मैंने नदी किनारे। इनके-उनके ताने सुनना / दिनभर देह गलाना / तीन रुपैया मिले मजूरी / नौ की आग बुझाना / अलग-अलग है / राम कहानी / टूटे हुए शिकारे।’ ‘है आज विजय की रात, पहरुए सावधन रहना’ लम्बे बलिदानी संघर्ष के बाद मिली आज़ादी के उल्लास के समय भी गिरिजा कुमार माथुर ने सावधन रहने की चेतावनी दी थी। आज जिनके कंधों पर स्वाधीन भारत का वर्तमान और भविष्य निर्भर है, उनकी ओर देखने पर उदास और हताश करने वाली तस्वीर दिखाई पड़ती है। अवनीश के शब्दों में- 

त्यागी है हंसों ने कंठी 
बगुलों ने है पहनी 
बागवान की नज़रों से है 
डरी-डरी-सी टहनी। 

अवनीश चैहान के इस काव्य संग्रह का दूसरा सिरा ‘अपना गाँव-समाज’ अपने नाम से ग्राम्य जीवन से जुड़ी अभिव्यक्तियों का संकेत देता है। पहले का गाँव अर्थात् प्रकृति की गोद में बसा हुआ, उसके ट्टतु परिवर्तन, धूप-छाँव, तीज-त्योहार, लोक मांगलिक उत्सव, उछाह के साथ सीधे सरल जीवन की मर्यादाओं की धरोहर को सँजोए हुए अपने समय की रंगीनियों में डूबते-उतराते, चलते-आगे बढ़ते रहने का एक उपक्रम। किन्तु आज गाँव का यह परम्परागत रूप बदल गया है। उसका तन और मन दोनों परिवर्तित हो गया है। अतः उसकी भौगोलिक स्थिति से उसका जो पुराना स्वरूप अथवा चित्र उभरता रहा है, वह अब वैसा नहीं रह गया है। ग्रामीण तथा शहरी, देशी और विदेशी जीवन शैली का वैविध्य मिलजुलकर जो परिवेश रच रहा है, उसकी प्रतिछाया के नीचे गाँव भी मध्यवर्गीय जीवन की संगतियों-विसंगतियों से पूरी तरह घिर गया है- ‘बड़े चाव से बतियाता था / अपना गाँव-समाज / छोड़ दिया है चैपालों ने / मिलना-जुलना आज।’ इसी संदर्भ में इस संग्रह के अधिसंख्य नवगीत मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं को व्यक्त करते हैं। समकालीन जीवन के बहुरंगी प्रसंगों को नवगीत के रुपाकार में ढालने के लिए जिस भाषिक संरचना, ताजगी और तेवर की अपेक्षा की जा रही है, अवनीश उससे सुपरिचित हैं और इसीलिए वह अपनी सृजन शक्ति को अपनी कहन और भंगिमा से जोड़ सके हैं। निचले और उच्चवर्ग के बीच सबसे अधिक क्षेत्रफल घेरने वाले मध्यवर्ग की समस्याओं का जाल इतना विस्तृत और सघन है कि अधिकांश रचनाओं का कथ्य उसी से जुड़ जाता है। इस संग्रह की रचनाएँ इस सर्वसुलभ विषयवस्तु के अतिरिक्त प्रकृति के परिवर्तनों, बिखरते पारिवारिक जीवन के बीच निहायत आत्मीयता की तलाश, मधुर रिश्तों का चित्रण, शहरी संत्रास और ग्रामीण संस्कृति की छूटती डोर को पकड़ने की कोशिश करती कथ्य में वैविध्य पैदा करती हैं। इस प्रकार से संग्रहीत रचनाएँ बहुआयामी हैं। 

जो तमाम मूल्यवान सरंजाम जुटाने की ख़्वाहिश नहीं रखते, अव्यवस्था की मार से टूटी जिनकी महत्वाकांक्षा दो रोटी, दो धेती, के जुगाड़ तक सीमित हो गई है, जो उन्मुक्त प्रकृति के निर्मूल्य उपादानों के उपभोग तक ही निर्भर रहना चाहते हैं, उनके लिए यह सब भी कितना दुर्लभ होता जा रहा है- ‘धूप सुनहरी / माँग रहा है / रामभरोसे आज।’ 

चैड़ी सड़कों पर हाँफती-भागती भीड़ का प्रत्यक्ष और परोक्ष संघर्ष जिस वैभव-विलास तथा दैन्य अभाव के बीच छटपटा रहा है, वह मनुष्यत्व की तरलता को सोखकर एक नीरस और रेतीली धरती छोड़ता जा रहा है। अवनीश चैहान जब यह कहते हैं कि- ‘फैला भीतर तक सन्नाटा / अंधियारों ने सब कुछ पाटा / कहाँ-कहाँ से टूटी पुनिया’ तो यह ‘सब कुछ’ मानवीय सरोकारों से नियुक्त होते जाते जीवन की ओर संकेत करता है। ऊपर से लग रहा है कि हम ‘बहुत कुछ’ हासिल कर रहे हैं लेकिन वास्तव में हम ‘सब कुछ’ खोते जा रहे हैं। सब कुछ खोते जाने की इस पीड़ादायक यात्रा में गाँव भी शरीक होकर काल प्रवाह के थपेड़े झेल रहे हैं- ‘पंच गाँव का / खुश है लेकिन / हाथ तराजू डोले / लगता जैसे / एक अनिर्णय की / भाषा में बोले।’ कहकर इस कवि ने उसी दर्द की ओर संकेत किया है। इसलिए वह प्रश्न भी करता है- ‘जब जाता था घर से कोई / पीछे-पीछे पग चलते / गाँव किनारे तक आकर सब / अपनी नम आँखें मलते / तोड़ दिया है किसने / आपसदारी का वह साज।’ और ‘सब चलते चौड़े रस्ते पर / पगडंडी पर कौन चलेगा?’ गाँवों का देश कहलाने वाले भारत पर जितने भी आक्रमण हुए, उनमें सबसे भयानक आज का सांस्कृतिक हमला है। अपनी मिट्टी की सुगन्ध, अपनी पहचान को बनाये रखने की चुनौती को सब से अधिक ग्रामीण जीवन ही स्वीकार करता आया है। ईंट-गारे पर सजे रंगों में झलकते गाँव परिवर्तन और विकास का दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं। ऊपर से दिखाई पड़ने वाला यह सकारात्मक पहलू, भीतर से खोखला और नकारात्मक होता गया है, क्योंकि हमारी भारतीयता (इण्डियन्नेस) का संरक्षण गाँवों में एक धरोहर के रूप में रहा है। जीवन की वह सीधी-सादी रंगत आज खोती जा रही है। माहेश्वर तिवारी ने इसी ओर संकेत किया है- ‘छोटी-छोटी / हँसी दूब-सी / खुलकर जीने से / लोग छिपाये / कतराते हैं / बड़े करीन से।’ इस तरह से नवाचार को आश्वस्तिदायक कैसे कहा जा सकता है। अवनीश की दृष्टि में- ‘अब न अजुध्या मन में बसती/ अब न बगाइच वाला वह मन/ कंकरीट के मकड़जाल ने/ पफाँस लिया है सादा जीवन।’ यह एक कटु यथार्थ है। 

इसके अतिरिक्त ‘माँ’, ‘पिता’, ‘गली की धूल’ शीर्षक गीतों में पारिवारिक जीवन की अत्यन्त आत्मीय स्मृतियाँ सँजोई गई हैं। युवा कवि मन में अगर रूमानियत की तरल अनुभूतियाँ न दिखाई पड़ें तो लगेगा कि वह ‘बड़े करीने से’ एक उत्सव राग पर परदा डाल रहा है। अवनीश चैहान ने इस रसज्ञरंजनता से बचने की कोशिश नहीं की है। ‘बिना बताए कहाँ गए’, ‘वे ठौर-ठिकाने’, ‘एक आदिम नाच’- जैसी रचनाएँ इसकी गवाह हैं। 

घोर निराशा, अभाव पीड़ा, विषमता की स्थितियों के सामने घुटने न टेककर नव निर्माण का रचनात्मक संघर्ष कवि का लक्ष्य होता है। अवनीश चैहान इस बिन्दु पर दृष्टि संपन्न हैं- ‘पथ के कंटकवन को / आओ / मिलकर आज जराएँ।’ और इसे साकार करने के लिए वे आगे कहते हैं- ‘बाग़ लगाएँ / फूल बनें हम / कोयल-सा कुछ गाएँ / भोर-किरण का / रूप धरें हम / तम को दूर भगाएँ / चुन-चुन कर / अनुभव के मोती / जोड़ें सभी शिराएँ।’ 

कहना न होगा कि ‘टुकड़ा कागज़ का’ संग्रह रचनात्मक विविध्ताओं से संपन्न है। कवि का यह प्रथम काव्य संग्रह सुबह की प्रथम किरण का गुणधर्म समेटे आकाशधर्मा, प्रकाशधर्मा प्रस्थान है जो आगे की सुखद यात्रा का भरपूर भरोसा दिलाता है। आशा और विश्वास है कि इस काव्य संग्रह का यथेष्ट स्वागत होगा। 



गुलाब सिंह 
ग्रा॰ व पो॰- बिगहनी,
इलाहाबाद-212305

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नवगीत संग्रह ''टुकड़ा कागज का" को अभिव्यक्ति विश्वम का नवांकुर पुरस्कार 15 नवम्बर 2014 को लखनऊ, उ प्र में प्रदान किया जायेगा। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष उस रचनाकार के पहले नवगीत-संग्रह की पांडुलिपि को दिया जा रहा है जिसने अनुभूति और नवगीत की पाठशाला से जुड़कर नवगीत के अंतरराष्ट्रीय विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। सुधी पाठकों/विद्वानों का हृदय से आभार।