Tuesday, 15 October 2013

बहुआयामी सोच का कवि - डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया

युवा कवि चिरंजीव अवनीश चैहान ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने अल्पावधि में अपने सृजन के बल पर हिन्दी काव्य जगत में न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है अपितु सुधी पाठकों को आकृष्ट भी किया है। साथ ही इन्होंने गीत-नवगीत के सृजन के साथ विभिन्न गीत-नवगीत संग्रहों की समीक्षा एवं इंटरनेट पर ‘पूर्वाभास’ पत्रिका का कुशल संपादन कर समीक्षक एवं संपादक के रूप में ख्याति अर्जित की है। ‘टुकड़ा कागज़ का’ अवनीश का प्रथम गीत-संग्रह है, जिस पर कुछ लिखने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हो रहा है। संग्रहीत रचनाओं के अवलोकन से मेरी दृष्टि में जो धरणा निर्मित हुई कि युवा कवि बहुआयामी सोच का है। वह किसी वाद या संकुचित विचारधारा की कारा में कैद नहीं है। निश्चित साँचे-खाँचे से प्रथक जीवन को समग्रता से अभिव्यक्त करने की छटपटाहट कवि में प्रतीत होती है।

‘चुप बैठा धुनिया’ रचना में धुनिया दबे-कुचले सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है तो ‘वह परवाज़’ गीत में रामभरोसे श्रम, साहस व धीरज का परिचय देते हुए ‘सर्वजन सुखाय’ की बात करता है। ‘श्रम की मंडी’‘किसको कौन उबारे’ रचनाओं में सर्वहारा वर्ग की कठिन ज़िंदगी रेखांकित है। ‘क्या कहे सुलेखा’ में वन सम्पदा एवं भूगर्भ में छिपी अन्य सम्पदाओं का माफियाओं द्वारा निरन्तर किये जा रहे दोहन एवं मनमानी के प्रति चिन्ता अभिव्यंजित है। वहीं ‘चिन्ताओं का बोझ-ज़िंदगी’ रचना भ्रष्ट राजनेताओं के चरित्र को उजागर करती है- ‘सत्ता पर / काबिज़ होने को / कट-मर जाते दल / आज सियासत / सौदेबाजी / जनता में हलचल।’

वर्तमान युग अर्थ प्रधान है। भोगवादी संस्कृति ने बाज़ारवाद को पोख्ता किया है। वस्तुओं के प्रचार-प्रसार में विज्ञापन का खासा महत्व है। ‘विज्ञापन की चकाचौंध’ विकसित हो रही बाज़ारू संस्कृति और उससे उपजी संवेदनहीनता एवं मूल्यहीनता का बोध कराने में सक्षम है तो ‘चिड़ियारानी’, ‘बदला अपना लाल’ ‘साधो मन को’ रचनाएँ हावी होती पाश्चात्य सभ्यता व छीजती पुरातन संस्कृति के प्रति आगाह करती हैं।

अवनीश चैहान ने जहाँ राजनैतिक अस्थिरता, अव्यवस्था, अवसरवादिता, भ्रष्ट आचरण, आतंकवाद, सामाजिक बिखराव, पारिवारिक बिखंडन, रेतीले सम्बन्धों आदि विकृतियों को विषयवस्तु बनाकर भावपूर्ण सशक्त अभिव्यक्ति दी है, वहीं आजादी के बाद हुए विकास की भी पड़ताल की है। यह ‘अनुभव के मोती’, ‘नदिया की लहरें’ जैसी रचनाओं से स्पष्ट है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि कवि की दृष्टि एकांगी नहीं है; वह नैराश्य के समुद्र में नहीं डूबता, उसका आस्थावादी स्वर नई चेतना व आशा का संचार करता है।

सारतः इस संग्रह की रचनाएँ विषयवस्तु की दृष्टि से बहुआयामी हैं। इसमें जनसंपृक्ति, समकालीनता एवं शाश्वत मूल्यों की संश्लिष्टता भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित है। कवि जीवन मूल्यों के पुनःस्थापन के लिए भी सचेष्ट है। युवा कवि अवनीश चैहान का यह काव्य संग्रह हिन्दी जगत में समादृत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
 





- डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया

1 comment:

  1. एक टुकड़ा कागज का " और डा. अवनीश सिंह चौहान पर डा.शिवबहादुर सिंह भदौरिया का. वक्तव्य या यूँ कहूँ कि समीक्षा बहुत सटीक लगी. अवनीश जी सचमुच बहुत संभावनाओं से भरे रचनाकार हैं. बधाई.

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नवगीत संग्रह ''टुकड़ा कागज का" को अभिव्यक्ति विश्वम का नवांकुर पुरस्कार 15 नवम्बर 2014 को लखनऊ, उ प्र में प्रदान किया जायेगा। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष उस रचनाकार के पहले नवगीत-संग्रह की पांडुलिपि को दिया जा रहा है जिसने अनुभूति और नवगीत की पाठशाला से जुड़कर नवगीत के अंतरराष्ट्रीय विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। सुधी पाठकों/विद्वानों का हृदय से आभार।